UCC UNIFORM CIVIL CODE – समान नागरिक संहिता, इससे क्या होंगे बड़े बदलाव

क्‍या है Uniform civil code?
यूनिफॉर्म सिविल कोड का अर्थ होता है भारत में रहने वाले हर नागरिक के लिए एक समान कानून होना, चाहे वह किसी भी धर्म या जाति का क्यों न हो। समान नागरिक संहिता में शादी, तलाक और जमीन-जायदाद के बंटवारे में सभी धर्मों के लिए एक ही कानून लागू होगा। इसका अर्थ है एक निष्पक्ष कानून है, जिसका किसी धर्म से कोई ताल्लुक नहीं है।

Uniform civil code?
दरअसल, दुनिया के किसी भी देश में जाति और धर्म के आधार पर अलग-अलग कानून नहीं है। लेकिन भारत में अलग-अलग पंथों के मैरिज एक्ट हैं। इस वजह से विवाह, जनसंख्‍या समेत कई तरह का सामाजिक ताना-बाना भी बि‍गडा हुआ है। इसीलिए देश के कानून में एक ऐसे यूनिफॉर्म तरीके की जरूरत है जो सभी धर्म, जाति‍, वर्ग और संप्रदाय को एक ही सिस्‍टम में लेकर आए। इसके साथ ही जब तक देश के संविधान में यह सुविधा या सुधार नहीं होगा, भारत के पंथ निरपेक्ष होने का अर्थ भी स्‍पष्‍ट तौर पर नजर नहीं आएगा।

इसके साथ ही अलग-अलग धर्मों के अलग कानून से न्यायपालिका पर बोझ पड़ता है। इस परेशानी से निजात मिलेगी और अदालतों में लंबित पड़े फैसले जल्द होंगे। शादी, तलाक, गोद लेना और जायदाद के बंटवारे में सबके लिए एक जैसा कानून होगा फिर चाहे वो किसी भी धर्म का क्यों न हो। वर्तमान में हर धर्म के लोग इन मामलों का निपटारा अपने पर्सनल लॉ यानी निजी कानूनों के तहत करते हैं।

Common Civil Code लागू होने के बाद क्या बदलाव आएगा? फायदे और नुकसान

  • शरीयत के अनुसार मुस्लिम कुछ भी नही कर पाएंगे जैसे मुस्लिमों का 3- 4 शादियां करना बंद हो जाएगा और तलाक लेने के लिए भी उनको कोर्ट के जरिए जाना होगा।
  • वे शरीयत के अनुसार अपने परिवार को जायदाद का बटवारा नही कर सकेंगे।
  • समान नागरिक संहिता लागू होने के बाद शादी, तलाक, दहेज, उत्तराधिकार के मामलों में हिंदू, मुसलमान और ईसाइयों पर एक समान कानून ही लागू होगा।
  • न्यायपालिका पर दबाव कम होगा और धर्म के कारण वर्षों से पड़े केस जल्दी से सुलझा लिए जायेंगे। और कोई भी आसानी से धर्म के आधार पर राजनीति नहीं कर पाएगा।
  • समान नागरिक संहिता लागू होने के बाद देश में महिलाओं की स्थिति में सुधार आएगा मुस्लिम में तीन शादियां करने का रिवाज टूटेगा और तीन बार तलाक कहने से शादी खत्म नहीं होगी

महिलाओं की स्थिति सुधरेगी: UCC लागू होने से महिलाओं की स्थिति सुधरेगी। कुछ धर्मों के पर्सनल लॉ में महिलाओं के अधिकार सीमित हैं। इतना ही नहीं, महिलाओं का अपने पिता की संपत्ति पर अधिकार और गोद लेने जैसे मामलों में भी एक समान नियम लागू होंगे।

समान नागरिक संहिता के पक्ष और विपक्ष में तर्क

  • संविधान निर्माण के बाद से ही समान नागरिक संहिता को लागू करने की मांग उठती रही है। लेकिन, जितनी बार मांग उठी है उतनी ही बार इसका विरोध भी हुआ है। समान नागरिक संहिता के हिमायती यह मानते हैं कि भारतीय संविधान में नागरिकों को कुछ मूलभूत अधिकार दिए गए हैं।
  • अनुच्छेद 14 के तहत कानून के समक्ष समानता का अधिकार, अनुच्छेद 15 में धर्म, जाति, लिंग आदि के आधार पर किसी भी नागरिक से भेदभाव करने की मनाही और अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और निजता के संरक्षण का अधिकार लोगों को दिया गया है।
  • लेकिन, महिलाओं के मामले में इन अधिकारों का लगातार हनन होता रहा है। बात चाहे तीन तलाक की हो, मंदिर में प्रवेश को लेकर हो, शादी-विवाह की हो या महिलाओं की आजादी को लेकर हो, कई मामलों में महिलाओं के साथ भेदभाव किया जाता है।
  • इससे न केवल लैंगिक समानता को खतरा है बल्कि, सामाजिक समानता भी सवालों के घेरे में है। जाहिर है, ये सारी प्रणालियाँ संवैधानिक मूल्यों के अनुरूप नहीं है। लिहाजा, समान नागरिक संहिता के झंडाबरदार इसे संविधान का उल्लंघन बता रहे हैं।
  • दूसरी तरफ, अल्पसंख्यक समुदाय विशेषकर मुस्लिम समाज समान नागरिक संहिता का जबरदस्त विरोध कर रहे हैं। संविधान के अनुच्छेद 25 का हवाला देते हुए कहा जाता है कि संविधान ने देश के सभी नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार दिया है। इसलिये, सभी पर समान कानून थोपना संविधान के साथ खिलवाड़ करने जैसा होगा।
  • मुस्लिमों के मुताबिक उनके निजी कानून उनकी धार्मिक आस्था पर आधारित हैं इसलिये समान नागरिक संहिता लागू कर उनके धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप न किया जाए।
  • मुस्लिम विद्वानों के मुताबिक शरिया कानून 1400 साल पुराना है, क्योंकि यह कानून कुरान और पैगम्बर मोहम्मद साहब की शिक्षाओं पर आधारित है।
  • लिहाजा, यह उनकी आस्था का विषय है। मुस्लिमों की चिंता है कि 6 दशक पहले उन्हें मिली धार्मिक आजादी धीरे-धीरे उनसे छीनने की कोशिश की जा रही है। यही कारण है कि यह रस्साकशी कई दशकों से चल रही है।

समान नागरिक संहिता लागू करने में आने वाली चुनौतियाँ

  • दरअसल, समान नागरिक संहिता को लागू करने की पूरजोर मांग उठने के बाद भी इसे अब तक लागू नहीं किया जा सका है। कई मौके ऐसे आए जब माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने भी समान नागरिक संहिता लागू न करने पर नाखुशी जताई है।
  • 1985 में शाह बानो केस और 1995 में सरला मुदगल मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा समान नागरिक संहिता पर टिप्पणी से भी इस मुद्दे ने जोर पकड़ा था, जबकि पिछले वर्ष ही तीन तलाक पर सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले के बाद भी इस मुद्दे को हवा मिली।
  • लेकिन, सवाल है कि इस मसले पर अब तक कोई ठोस पहल क्यों नहीं हो सकी है? दरअसल, भारत का एक बहुल संस्कृति वाला देश होना इस रास्ते में बड़ी चुनौती है।
  • हिंदू धर्म में विवाह को जहाँ एक संस्कार माना जाता है, वहीं इस्लाम में इसे एक Contract माना जाता है। ईसाइयों और पारसियों के रीति- रिवाज भी अलग-अलग हैं।
  • लिहाजा, व्यापक सांस्कृतिक विविधता के कारण निजी मामलों में एक समान राय बनाना व्यावहारिक रूप से बेहद मुश्किल है।
  • दूसरी समस्या है कि अल्पसंख्यक विशेषकर मुसलमानों की एक बड़ी आबादी समान नागरिक संहिता को उनकी धार्मिक आजादी का उल्लंघन मानती है।
  • जाहिर है, एक बड़ी आबादी की मांग को नकार कर कोई कानून अमल में नहीं लाया जा सकता है। तीसरी समस्या यह है कि अगर समान नागरिक संहिता को लागू करने का फैसला ले भी लिया जाता है तो इसे समग्र रूप देना कतई आसान नहीं होगा।
  • इसके लिये  कोर्ट को निजी मामलों से जुड़े सभी पहलुओं पर विचार करना होगा। विवाह, तलाक, पुनर्विवाह आदि जैसे मसलों पर किसी मजहब की भावनाओं को ठेस पहुँचाए बिना कानून बनाना आसान नहीं होगा।
  • सिर्फ शरिया कानून, 1937 ही नहीं बल्कि, Hindu Marriage Act, 1955, Christian Marriage Act, 1872, Parsi Marriage and Divorce Act, 1936 में भी सुधार की आवश्यकता है।
  • मुश्किल सिर्फ इतनी भर नहीं है। मुश्किल यह भी है कि देश के अलग-अलग हिस्से में एक ही मजहब के लोगों के रीति रिवाज अलग-अलग हैं।
  • मौजूदा वक्त में गोवा अकेला राज्य है जहाँ समान नागरिक संहिता लागू है। जाहिर है, इसके लिए काफी प्रयास किए गए होंगे। इसलिए यह कहना गलक नहीं होगा कि दूसरे राज्यों में भी अगर कोशिश की जाती है तो, इसे लागू करना मुमकिन हो सकता है।
  • दूसरी ओर वोटबैंक की राजनीति भी इस मुद्दे पर संजीदगी से पहल न होने की एक बड़ी वजह है।
  • एक दल जहाँ समान नागरिक संहिता को अपना एजेंडा बताता रहा है, वहीं दूसरी पार्टियाँ इसे अल्पसंख्यकों के खिलाफ सरकार की राजनीति बताती रही हैं।
  • जाहिर है, एक दल को अगर वोटबैंक के खिसक जाने का डर है तो, दूसरे को वोटबैंक में सेंध लगाने की फिक्र है। दरअसल, सियासी दलों का यह डर पुराना है।
  • जब 1948 में हिन्दू कोड बिल संविधान सभा में लाया गया, तब देश भर में इस बिल का जबरदस्त विरोध हुआ था। बिल को हिन्दू संस्कृति तथा धर्म पर हमला करार दिया गया था।
  • सरकार इस कदर दबाव में आ गई कि तत्कालीन कानून मंत्री भीमराव अंबेडकर को पद से इस्तीफा देना पड़ा। यही कारण है कि कोई भी राजनीतिक दल समान नागरिक संहिता के मुद्दे पर जोखिम नहीं लेना चाहता।

किन-किन देशों में है समान नागरिक संहिता?

समान नागरिक संहिता का पालन कई देशों में होता है। इन देशों में पाकिस्तान, बांग्लादेश, मलेशिया, तुर्किये, इंडोनेशिया, सूडान, मिस्र, अमेरिका, आयरलैंड, आदि शामिल हैं। इन सभी देशों में सभी धर्मों के लिए एकसमान कानून है और किसी धर्म या समुदाय विशेष के लिए अलग कानून नहीं हैं।
किसने लगाई याचिका?
एक्‍ट‍िविस्‍ट अश्‍विनी उपाध्‍याय ने यूसीसी लागू कराए जाने को लेकर Supreme Court में याचिका दायर कर रखी है। उनका कहना है कि देश एक संविधान से चलता है। एक ऐसा विधान जो सभी धर्मों और संप्रदायों पर एक समान लागू हो। किसी भी पंथ निरपेक्ष देश में धार्मिक आधार पर अलग-अलग कानून नहीं होते हैं। भारत में Uniform civil code अनिवार्य तौर पर होना चाहिए।

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